Sunday, March 23, 2014

‘असली बीजेपी, नकली बीजेपी’

76 साल की उम्र में बाड़मेर से चुनाव लड़ने के इच्छुक जसवंत सिंह अचानक बेहद भावुक हो गए। मीडिया से बात करते वक्त उनकी आँखें छलछला आईं। जसवंत सिंह कहने लगे कि अभी जो कुछ हो रहा है, वास्तव में यही अंतर है असली और नकली बीजेपी में। बीजेपी पर एक किस्म का अतिक्रमण हो गया है। तो ये अतिक्रमण क्यों होने दिया गया है। ये वैचारिक अतिक्रमण है। जसवंत सिंह ने ये बयान जयपुर पहुंच कर दिया। बाड़मेर से उन्हें बीजेपी का टिकट नहीं मिला है।

19 अगस्त 2009 को शिमला के एक पाँच सितारा होटल में भी जसवंत सिंह की आँखें इसी तरह भर आई थीं। उस दिन भी उन्होंने बीजेपी के बारे में कुछ इसी तरह की बातें की थीं। उस दिन उन्हें बीजेपी से निकाल दिया गया था। वजह ये थी कि उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना पर लिखी किताब में देश के विभाजन के लिए जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल पर उंगुली उठाई थी।  

2009 की हार के बाद लाल कृष्ण आडवाणी के घर हुई बैठक में जसवंत सिंह ने हार के लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई की मांग की थी। उन्होंने परिणाम और पुरस्कार के बीच संबंध रखने का सुझाव दिया था। माना गया कि उनका इशारा अरुण जेटली की ओर था जो 2009 के प्रचार के प्रभारी थे मगर हार के बाद उन्हें राज्य सभा में विपक्ष का नेता बना दिया गया था।

सवाल ये उठता है कि जसवंत सिंह बीजेपी के बारे में सवाल तभी क्यों पूछते हैं जब चीजें उनके मन मुताबिक नहीं होतीं। 1996 और 1998 से लेकर 2004 तक जसवंत सिंह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वाजपेयी, आडवाणी के बाद तीसरे नंबर पर रहे। तमाम बड़े फैसलों में उनकी बड़ी भूमिका रही। लेकिन सरकार पर पकड़ बना कर रखने वाले जसवंत सिंह 2004 में हार के बाद से पार्टी पर पकड़ नहीं बना पाए। अपने गृह राज्य राजस्थान में वसुंधरा राजे से उनका टकराव होने लगा। वाजपेयी के करीबी माने जाने वाले जसवंत आडवाणी के नजदीक हो गए। जिन्ना विवाद में उन्होंने आडवाणी का साथ दिया। संघ ने उन्हें कभी पसंद नहीं किया।

इस बार वसुंधरा ज्यादा ताकतवर होकर सामने आई हैं। राजस्थान में बीजेपी को ऐतिहासिक बहुमत मिला है। वसुंधरा पार्टी की उन चुनिंदा नेताओं में से हैं जो नरेंद्र मोदी के समर्थन में सबसे पहले खुल कर आगे आए हैं। मध्य प्रदेश की तुलना में वसुंधरा ने राजस्थान चुनाव में मोदी से खूब प्रचार करवाया और जब जीतीं तो मोदी को श्रेय देने में कंजूसी भी नहीं बरती। लोक सभा चुनाव के लिए एक-एक सीट पर उम्मीदवार तय करने का एक ही पैमाना रखा- जीत। जब जसवंत सिंह की बात आई तो उन्हें बाड़मेर के बजाए जोधपुर से उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव दिया। लेकिन जाहिर है कि जोधपुर राजघराने से रिश्तेदारी के चलते जसवंत वहां से नहीं खड़े हो सकते थे। जब पार्टी ने जसवंत को बाड़मेर से खड़ा करने पर जोर दिया तो उनकी ओर से साफ किया गया कि पार्टी सोच ले उसे राजस्थान में एक सीट चाहिए या चौबीस।

राजस्थान बीजेपी का मानना है कि जाट नेता कर्नल सोनाराम चौधरी को टिकट देना ज्यादा जरूरी है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाट बीजेपी की ओर आने लगे थे। लेकिन यूपीए सरकार ने जैसे ही जाट आरक्षण की बात की है, उनका रुख एक बार फिर कांग्रेस और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल की तरफ होता दिख रहा है। एक ताकतवर जाट नेता को मैदान में उतारने से सिर्फ राजस्थान ही नहीं, बल्कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी संदेश जाता है। आरएसएस साफ कर चुका था कि उम्रदराज नेताओं की जगह नए खून को इस चुनाव में मौका दिया जाए। रही बात जसवंत सिंह की, तो उनके बेटे मानवेंद्र एक बार लोक सभा सांसद रह चुके हैं। अभी बाड़मेर जिले से ही पार्टी विधायक हैं। पार्टी नेता जसवंत सिंह को उनके साथी यशवंत सिन्हा की याद भी दिला रहे हैं जो इस बार अपने बेटे को झारखंड की हजारीबाग सीट से टिकट दिला कर चुनावी राजनीति से दूर हो गए हैं।


तो क्या इसीलिए जसवंत सिंह को अचानक असली बीजेपी और नकली बीजेपी नजर आने लगी है। पार्टी पर वैचारिक अतिक्रमण दिखने लगा है। उनके समर्थक अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के फोटो के बीच छपे नरेंद्र मोदी के फोटो को मिटाने लगे हैं। ऐन चुनावों के वक्त बगावती तेवर दिखाने के पीछे एक उम्मीद ये भी है कि बीजेपी के अंदरुनी झगड़ों के सामने आने से पार्टी के पक्ष में बना माहौल बिगड़े। बीजेपी में कुछ लोग सवाल पूछ रहे हैं कि अगर जसवंत सिंह को बाड़मेर से टिकट मिल जाता तो क्या फिर भी वो असली-नकली बीजेपी की बात करते। शिमला चिंतन बैठक के समय जब उन्हें बीजेपी से निकाला गया और जब आडवाणी के कहने पर उनकी वापसी हुई, तब वो असली बीजेपी था या फिर नकली? और पार्टी पर हो रहे वैचारिक अतिक्रमण के बारे में उनका मुंह तभी क्यों खुला जब उनका टिकट कट गया?
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