Friday, January 09, 2015

क्योंकि अब इसी का ज़माना है

पेरिस में शार्ली एबदो पर हमले को लेकर यहां भीषण प्रतिक्रिया हो रही है। हर कोई अपनी राय रख रहा है। जो क्षुब्ध हैं वो भी और जो इसे जायज़ मानते हैं वो भी। पेशावर में बच्चों के पाशविक नरसंहार पर यहां आंसूओं का सैलाब बह उठा। देश-विदेश की घटनाओं की सूचनाएं और उन पर प्रतिक्रियायें सबसे पहले यहीं आ रही हैं। यहां उभरती आम लोगों की भावनाएं हुक्मरानों को अपने फैसले बदलने पर मजबूर कर रही हैं। ये सोशल मीडिया या न्यू मीडिया का युग है।

एक जनवरी को मैंने ट्विटर पर अपने मित्रों को नववर्ष की शुभकामनायें सोशल मीडिया के ज़रिए सशक्त बने रहने के साथ दी थीं। आम लोगों के सशक्तीकरण का इससे बेहतर कोई माध्यम नहीं हो सकता। ऐसा नहीं है कि लोग अखबारों-टीवी, जिन्हें एमएसएम यानी मेनस्ट्रीम मीडिया कहा जाता है, को सूचना के माध्यम के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। लेकिन ये कहना गलत है कि वो पूरी तरह से उस पर निर्भर हैं। बल्कि सोशल मीडिया की तीखे तेवरों के बाद एमएसएम से कथित निष्पक्षता का वो झीना आवरण भी गिरता जा रहा है जिसे ओढ़ कर वो पिछले कई दशकों से पाठकों और दर्शकों को प्रभावित करते आ रहे थे।

किशोरावस्था में अखबारों में पत्र संपादक के नाम लिखा करता था। कभी छपता था कभी नहीं छपता था। वो पाठकों से सीधे संवाद का अखबारों का इकलौता माध्यम था। धीरे-धीरे उसकी अहमियत कम होती गई। अखबार पाठकों से दूर होते गए। पत्र संपादक के नाम अब भी छपते हैं मगर उनकी जगह सिमटती चली गई। टेलीविजन में दो तरफा संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है। वहां ये जानने या समझने का कोई जरिया नहीं है कि दर्शक किसी समाचार या विचार के बारे में क्या सोच रहा है। अगर किसी माध्यम से दर्शक अपनी बात पहुंचाना भी चाहे, जैसे कई बार न्यूज़ रूम में संपादकों के नाम पत्र आते हैं या फिर टेलीफोन कॉल, तो उन्हें सुनने या पढ़ने का कोई इंतज़ाम नहीं है और न ही किसी की उनमें दिलचस्पी होती है।

लेकिन सोशल मीडिया में ऐसा नहीं है। यहां आप अपनी बातों के लिए जवाबदेह तो हैं ही खुद को माइक्रोस्कोप में परखने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। यहां निष्पक्षता के मापदंड अलग हैं। यहां पोल खुलने में देर नहीं लगती। सोशल मीडिया ने मोबाइल पकड़े हर हाथ को अपनी बात कहने की आजादी दे दी है। लोकतंत्र का विस्तार कर दिया है या यूं कहें कि मीडिया का लोकतंत्रीकरण कर दिया है। ये साबित कर दिया है कि चाहे अखबार हो टीवी या फिर कोई सूचना का कोई अन्य परंपरागत माध्यम, वो सिर्फ माध्यम ही है। और बदलते समय और तकनीक के साथ उसकी जगह कोई और ले लेगा।

मान लीजिए कहीं कोई बड़ी घटना होती है। उसकी सूचना आप तक कैसे पहुंचेगी? अगर आप टीवी के सामने होंगे तो शायद वहां किसी चैनल पर फ्लैश चले। पर आप एक वक्त में एक ही चैनल देख सकते हैं और अगर उस चैनल ने वो खबर नहीं चलाई तो आप शायद अनभिज्ञ ही रह जाएं। वैसे भी कोई पूरे वक्त टीवी नहीं देखता है। अखबार अगले दिन आएगा। कोई जरूरी नहीं कि आप अपने घर जो अखबार मंगाते हों उसमें उसका जिक्र हो।

सोशल मीडिया के साथ ये समस्यायें नहीं हैं। ट्विटर और फेसबुक पर जानकारी देने वाले सिर्फ एमएसएम ही नहीं हैं। समाचार एजेंसियों को फॉलो कर भी जानकारियां पहले हासिल की जा सकती हैं। ऐसा भी होता आया है कि व्यक्तिगत स्रोतों से कई बार खबरें पहले सोशल मीडिया पर ब्रेक होती हैं और एमएसएम को इसके बारे में बाद में पता चलता है। हकीकत तो ये है कि आजकल हर न्यूज़ रूम में सोशल मीडिया की मॉनिटरिंग होती है और ये भी समाचारों का एक बड़ा स्रोत बन गया है।

दूसरा सोशल मीडिया का विचार पक्ष है। देश-दुनिया की हर घटना पर सबसे पहले प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर ही होती है। यहां हर खबर को देखने का आम लोगों का नज़रिया है जो वो बेबाक ढंग से रखते हैं। एक पक्षीय और एक तरफा समाचार और विचार पेश कर निष्पक्षता का ढोल पीटने और खुद को पाक साफ दिखाने का ढोंग करने वालों की यहां अच्छे से खबर ली जाती है। कई बार ये प्रतिक्रियायें असंयत, हिंसक, असभ्य और व्यक्तिगत हो जाती हैं जो किसी को भी असहज कर सकती हैं।

बावजूद इसके ये ऐसा माध्यम है जिसे नजरअंदाज करने से अब काम नहीं चलेगा। ये जनता की अदालत है। जिसमें फरियादी, वकील और जज जनता ही है न कि खुद को भगवान से कम न समझने वाले मुट्ठी भर लोग!!


2 comments:

  1. SIR AAJ TO KALAMTOD DI,PHAD KE RAKH DIYA AAJ

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  2. एम.एस.एम.को इस कड़ुए घूट को पीकर इस वास्तविकता से रूबरू होना ही पड़ेगा कि वह दर्शकों के प्रति निर्ममता की हद तर गैर जिम्मेदार रहा है.कोई खुले आम कांग्रेसी,कोई बीजेपी और कोई आ.आ.पा. के पाले में खड़ा दिखाई देता है.किन्तु कोई भी जनता के पक्ष या जन कल्याण और रचनात्मकता की और नहीं दिखाई देता .सोशल मीडिया ने आज वास्तव में msm को अलग थलग खड़ा कर दिया है?

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