Friday, November 24, 2017

चुनाव के वक्त संसद में काम नहीं सिर्फ शोर

संसद का शीतकालीन सत्र 15 दिसंबर को शुरू होगा यानी गुजरात में मतदान खत्म होने के ठीक एक दिन बाद। पिछले साल यह सत्र 16 नवंबर को शुरू हुआ था और 16 दिसंबर को समाप्त हुआ। यानी हम यह मान कर चल सकते हैं कि अगर इस साल गुजरात विधानसभा चुनाव नहीं होता तो शीत सत्र भी नवंबर के तीसरे सप्ताह में शुरू होकर दिसंबर के तीसरे सप्ताह में समाप्त होता। लेकिन विधानसभा चुनाव की वजह से संसद सत्र देर से शुरू हो रहा है और समाप्त 5 जनवरी को होगा यानी अगले वर्ष। सवाल पूछा जा रहा है क्या एक राज्य के चुनाव की वजह से संसद का कामकाज टाला जा सकता है। लेकिन सवाल ये भी है कि क्या एक राज्य के चुनाव की वजह से संसद में सामान्य कामकाज हो सकता था?

यह सवाल इसलिए क्योंकि इससे पहले भी संसद के कई सत्र विधानसभा चुनावों का अखाड़ा बन कर हंगामे की भेंट चढ़ चुके हैं। कई बार तो राजनीतिक दलों में आपसी सहमति से यह तय हो गया कि चूंकि राज्यों के चुनाव अधिक महत्वपूर्ण हैं इसलिए संसद का सत्र या तो छोटा कर दिया गया या फिर टाल दिया गया। सबसे ताजा उदहारण यूपीए सरकार के वक्त 2011 का है। तब राजनीतिक दलों में सहमति बनी कि संसद के कामकाज से ज्यादा जरूरी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं इसलिए बजट सत्र छोटा कर दिया गया। सांसदों ने पाया कि तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल राज्यों के चुनाव में प्रचार के लिए समय नहीं मिल सकेगा इसलिए बजट सत्र छोटा कर दिया गया।

यूपीए की एक और मिसाल बेहद दिलचस्प है। 2008 में मॉनसून सत्र दिसंबर तक बढ़ा दिया गया था। यानी ठंड में बारिश करा दी गई थी। इसके पीछे वजह यह थी कि मॉनसून सत्र में न्यूक्लियर डील के विरोध में यूपीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। नियमानुसार एक ही सत्र में दो बार अविश्वास प्रस्ताव नहीं आ सकता इसलिए दोबारा अविश्वास प्रस्ताव से बचने के लिए मॉनसून सत्र को दिसंबर तक खींच दिया गया था। इसी तरह तेलंगाना पर हो रहे लगातार हंगामे के चलते यूपीए सरकार ने 2013 में शीत सत्र को दो दिन पहले ही समाप्त कर दिया था।

हालांकि संसद सत्र बुलाने या उसकी निश्चित अवधि रखने का कोई नियम नहीं है। नियम सिर्फ यह है कि दो सत्रों के बीच छह महीने से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए। सरकारें अपनी सुविधा के अनुसार सत्र कभी भी बुला सकती हैं और समय से पहले समाप्त भी कर सकती हैं। एनडीए सरकार ने इसी बात का फायदा पिछले साल उठाया था जब बजट सत्र को दो हिस्सों में बांट दिया था क्योंकि वो शत्रु परिसंपत्ति विधेयक को पारित नहीं करा पाई थी और दोबारा अध्यादेश लाना चाहती थी।

लेकिन चुनावों का असर सिर्फ संसद सत्र पड़ने पर ही सवाल क्यों उठाया जाता है। क्या हम यह नहीं देखते हैं कि किस तरह बार-बार होने वाले चुनावों का सरकारों के काम पर असर पड़ता है। खजाने पर बोझ पड़ता है और लोगों के कल्याण के लिए चल रही कई योजनाओं पर विपरीत असर होता है। देश में हर वक्त कोई न कोई चुनाव कहीं न कहीं पर हो रहा होता है। पंचायत से लेकर विधानसभाओं और लोक सभा के चुनाव तक। कहने के लिए विधानसभाओं और लोक सभा का कार्यकाल पांच साल के लिए है लेकिन बीच-बीच में होने वाले उपचुनाव भी सरकारों के हाथ बांधते हैं।

जाहिर है इसका सही समाधान पूरे देश में एक साथ सारे चुनाव कराना है। इससे हर दो-तीन महीने में चुनाव की वजह से होने वाली परेशानियों से छुटकारा पाया जा सकता है. परंतु इस समाधान को विचारधारा का मुद्दा बना कर एक बड़ा तबका विरोध करता है। ऐसा नहीं है कि इसे लागू करने में दिक्कतें नहीं हैं। इसका कम से कम अगले दस वर्ष का कैलेंडर बनाना होगा। कई विधानसभाओं का कार्यकाल छोटा करना होगा तो कुछ का बढ़ाना होगा। लेकिन कहीं न कहीं शुरुआत तो करनी होगी। अन्यथा चुनावों को लेकर संसद के कामकाज को लेकर शिकायतें करने से कुछ हासिल नहीं होगा।


इसी के साथ संसद के कामकाज का कैलेंडर बनाना और उसके कार्यदिवसों को तय करना होगा। संसद न सिर्फ कानून बनाने का मंच है बल्कि सरकार की जवाबदेही और उसके कामकाज की पारदर्शिता को कसौटी पर कसने का माध्यम भी है। न सिर्फ हर सत्र के शुरुआत और समापन की तारीखें तय हों बल्कि कितने दिन काम हो, यह भी तय होना चाहिए। सांसदों को हंगामे के बजाए अपनी बात तर्कों और तथ्यों से रखने के लिए भी प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। दिलचस्प बात यह है कि पिछले चार साल यानी 2011 से 2016 के शीतकालीन सत्र के कामकाज का अगर हिसाब लें तो पता चलता है कि सबसे कम काम शीत सत्रों में ही हुआ है। पिछले साल का शीत सत्र इस लोक सभा का सबसे कम उत्पादक सत्र रहा है। हालांकि यह बहुत कुछ मुद्दों पर भी निर्भर करता है परंतु सवाल यह भी है कि अगर संसद काम के बजाय सिर्फ शोर करने के लिए है तो फिर क्या उसकी गरिमा कम नहीं हो रही है?

Thursday, November 23, 2017

आरक्षण का झांसा कब तक

 पाटीदार अनामत (आरक्षण) आंदोलन समिति के नेता हार्दिक पटेल ने कहा है कि कांग्रेस गुजरात में पाटीदारों को आरक्षण देने पर सहमत हो गई है। इसके लिए फार्मूला तैयार हो गया है और विशेष कैटेगरी बनाकर आरक्षण दिया जाएगा। पटेल का कहना है कि इस फार्मूले के तहत राज्य में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग को मिल रहे मौजूदा 49% आरक्षण को नहीं छेड़ा जाएगा बल्कि पचास फीसदी से ऊपर आरक्षण मिलेगा। पटेल ये भी कहते हैं कि संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि पचास फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। पटेल ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल से बातचीत के बाद ये ऐलान किया है। सिब्बल फार्मूले का खुलासा करने के बजाए सिर्फ इतना कहते हैं कि संविधान के दायरे में रह कर आरक्षण दिया जाएगा।

जब पटेल कहते हैं कि संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि पचास फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता और कानून तथा संविधान के जानकार कपिल सिब्बल इस पर खामोश रहते हैं तो समझ जाना चाहिए कि मामला इतना आसान नहीं है। क्योंकि शायद सिब्बल भी जानते हैं कि चुनाव में जाने से पहले पाटीदार मतदाताओं को भरोसा दिलाने के लिए चाहे आरक्षण का लॉलीपाप थमा दिया जाए लेकिन इसे लागू करना असंभव है। विशेष कैटेगरी बनाने के लिए आयोग का गठन ऐसा वादा है जो आरक्षण की दिशा में तो ले जाता है लेकिन उसे पूरा नहीं करते। पूरा कर भी नहीं सकते क्योंकि अदालतें ऐसा नहीं होने देंगी।

पचास फीसदी से अधिक आरक्षण करने के लिए तमिलनाडु का उदाहरण बार-बार दिया जाता है। यह कहा जाता है कि तमिलनाडु की ही तरह आरक्षण बढ़ा कर 69 फीसदी कर इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में रखा जा सकता है ताकि अदालतें इसकी पड़ताल न कर सकें। हालांकि इस पर सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला अभी आना बाकी है। कांग्रेस गुजरात में संविधान के अनुच्छेद 31 सी की तहत आरक्षण देना चाह रही है। यह अनुच्छेद नौवीं अनुसूची का मुख्य हिस्सा है जिनके तहत बनाए गए कानूनों की वैधता को अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती है। लेकिन आज टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 11 जनवरी 2007 को आई आर कोइल्हो मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसा हो पाना संभव नहीं है। इसमें कहा गया है कि अगर कोई कानून संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड करता पाया गया तो उसे नौवीं अनुसूची के तहत सुरक्षा प्रदान नहीं होगी।

लेकिन सिर्फ कॉंग्रेस ही नहीं, आरक्षण को चुनावी हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल करने में बीजेपी या अन्य राजनीतिक दल भी पीछे नहीं हैं। इससे बड़ी विडंबना नहीं हो सकती कि बीजेपी हार्दिक पटेल के दावों की पोल खोलने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जिस ताजा आदेश का हवाला दे रही है वो उसके अपने ही शासन वाले राज्य राजस्थान का है। वहां गुर्जरों को पांच फीसदी आरक्षण देने का राज्य सरकार का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने इसी महीने यह कहते हए रोक दिया कि ऐसा करने से आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा पार हो जाएगी। गुजरात बीजेपी सरकार ने ही पिछले दरवाजे से पटेलों को आरक्षण देने की कोशिश की थी। तब छह लाख रुपए तक वार्षिक आमदनी पाने वाले गरीब सवर्णों को दाखिले में दस फीसदी आरक्षण के लिए अध्यादेश लाया गया था लेकिन ये अदालतों में नहीं टिक सका था।

आरक्षण को वोट पाने का राजनीतिक हथियार बनाने का यह खेल देश को पीछे ले जा रहा है। आरक्षण का झांसा देकर और झूठे वादे कर चुनावों में वोट तो हासिल हो सकते हैं लेकिन इससे आरक्षण की मूल सोच को बहुत गहरी ठेस पहुँचती है। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछडों को आरक्षण देने के विचार के पीछे भारतीय समाज की गहरी समझ और उसके अंतर्विरोधों को दूर करने की इच्छा रही है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में स्पष्ट किया कि आरक्षण देने का आधार आर्थिक रूप से पिछड़ा नहीं हो सकता लेकिन ओबीसी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर का प्रावधान यही सोच कर किया गया कि आरक्षण हक के तौर पर नहीं बल्कि हक लेने के हथियार के तौर पर होना चाहिए। पचास फीसदी की सीमा भी इसी फैसले में बांधी गई थी। इसके पीछे सोच यह रही है कि पचास फीसदी से अधिक आरक्षण देने का मतलब होगा रिवर्स डिस्क्रिमिनेशन। मतलब ये कि आरक्षण लोगों को ऊपर से नीचे लाने का जरिया बन जाएगा न कि नीचे से ऊपर ले जाने का।

चाहे गुजरात में पाटीदार आंदोलन हो या राजस्थान में गुर्जर या फिर महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन, शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण इन समस्याओं का न तो फौरी समाधान है और न ही दीर्घकालीन। खेती से जुड़ी इन जातियों की समस्या का मूल कारण खेती में देश भर में आया संकट है। परिवार बढ़ता गया है और खेत का आकार कम होता चला गया है। खेती से होने वाली आमदनी कम हो रही है। रोजगार के अवसर नहीं हैं। सरकारी नौकरियों में ही सुरक्षित भविष्य नजर आता है। देश के अलग-अलग राज्यों में आरक्षण के लिए नए सिरे से उठी मांग के पीछे यही कारण है।


पर ये ऐसी समस्या है जिसका हल तुरंत नहीं होने वाला है। शायद इसीलिए राजनीतिक दलों को लगता है कि समस्याओं के दीर्घकालीन हल के बारे में बात करने या उस दिशा में काम करने के बजाए चुनावों में वोट पाने का एक ही तरीका है- आरक्षण का झूठा वादा। यह जानते हुए भी कि अदालतों में यह नहीं टिक सकेगा, राजनीतिक दलों में ऐसे वादे करना आम बात हो गई है। पर सवाल ये है कि आम लोग हकीकत जानते हुए भी कब तक झांसों का शिकार होते रहेंगे?